शांति

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विदेश से लौट कर मैं सीधा ही दिल्ली पहुंचा दरवाज़ा खुलते ही मुझे भी रोना आ गया ये शायद मृत्यु की प्रतिध्वनी ही थी जो उस समय छाई हुई थी जिस कमरे में मित्रों का जमावड़ा रहा था उनके द्वार बंद थे और उधर मकड़ियों ने चारों ओर जाले तान रखे थे देवनाथ के साथ वह भी लुप्त हो गई थी पहली नज़र में तो मुझे ऐसा भ्रम हुआ की देवनाथ वहीँ द्वार पर खड़े मेरी और मुस्कुरा रहे हैं मैं मिथ्यावादी नहीं हु और आत्मा की दैहिकता में मुझे संदेह है, लेकिन उस वक्त एक बार मैं खुद चौंक जरुर पड़ा और...