ईश्वर रे, मेरे बेचारे...!

(63)
  • 19.9k
  • 5
  • 4.7k

ईश्वर रे, मेरे बेचारे...! फणीश्वरनाथ रेणु अपने संबंध में कुछ लिखने की बात मन में आते ही मन के पर्दे पर एक ही छवि 'फेड इन' हो जाया करती है : एक महान महीरुह... एक विशाल वटवृक्ष... ऋषि तुल्य, विराट वनस्पति! फिर, इस छवि के ऊपर 'सुपर इंपोज' होती है दूसरी तस्वीर : जटाजूटधारी बाबूजी की गोद में किलकता एक नन्हा शिशु!! और तब अपने बारे में कुछ लिखने की बात मन से दूर हो जाती है। क्योंकि इस वृक्ष को बाद देकर अपनी कहानी लिख पाना मेरे लिए असंभव है। अतः जब लिखने बैठा हूँ, शुरू में ही कबूल कर लेना