अंतर्कथाओं के आईने में उपन्यास

  • 8.7k
  • 1.5k

राहुल सिंह ने पिछले एक दशक में कथालोचना के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई है। हिन्दी उपन्यासों पर केन्द्रित उनकी यह आलोचनात्मक कृति 1936 ई. से लेकर 2014 ई. तक के अन्तराल से एक चयन प्रस्तुत करती है। इसमें एक ओर तो अकादमिक क्षेत्रों में पढ़ाये जानेवाले गोदान , तमस और डूब जैसे उपन्यास हैं तो वहीं दूसरी ओर मिशन झारखंड , समर शेष है , काटना शमी का वृक्ष , निर्वासन , कैसी आगि लगाई , बरखा रचाई , आदिग्राम उपाख्यान , काटना शमी का वृक्ष पद्म पंखुरी की धार से , निर्वासन और संजीव की फांस को छोड़कर उनके लगभग उपन्यासों को रेखांकित करता एक विशद् लेख शामिल है, जिसके केन्द्र में रह गई दिशाएँ इसी पार है। उपन्यासों में विन्यस्त कथात्मकता की परतों को खोलने के लिए उसकी अन्तर्कथाओं को उपन्यासकार द्वारा उपलब्ध कराये गये अन्त:सूत्रों की तरह वे अपनी आलोचना में बरतते हैं। इस कारण वे पाठ के भीतर से उपन्यास के लिए प्रतिमान ढूंढनेवाले एक श्रमसाध्य आलोचक की छवि प्रस्तुत करते हैं। हर लेख आलोचना की भाषा पर की गई उनकी मेहनत का पता देती है। कथात्मकता की कसौटी पर वे उपन्यासों से इतर एक आत्मकथा मुर्दहिया , एक डायरी अग्निपर्व शांतिनिकेतन और एक आलोचना उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता पर भी कुछ जरूरी बातें प्रस्तावित करते हैं। इस लिहाज से देखें तो अपनी समकालीन कथात्मकता की पड़ताल करती एक जरूरी किताब है, जिसे जरूर देखा जाना चाहिए।