चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 43

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मौर्य कहेते हैं की यह सब ढोंग है रक्त और प्रतिशोध, क्रूरता और मृत्यु का खेल देखते ही जीवन बिता, अब क्या मैं इस सरल पथ पर चल सकूंगा? यह ब्राह्मण आँख मुंदने खोलने का अभिनय भले ही करे, पर मैं! असम्भव है! अरे, जैसे मेरा रक्त खौलने लगा ह्रदय में एक भयानक चेतना, एक अवज्ञा का अट्टहास, प्रति हिंसा जैसे नाचने लगी यह एक साधारण मनुष्य, दुर्बल कंकाल, विश्व के समूचे शस्त्रबल को तिरस्कृत किये बैठा है! रख दू गले पर खड्ग, फिर देखूं तो यह प्राण भिक्षा मांगता है या नहीं? सम्राट चन्द्रगुप्त के पिता की अवज्ञा? नहीं नहीं, ब्रह्महत्या होगी, हो, मेरा प्रतिशोध और चन्द्रगुप्त का निष्कंटक राज्य....