रिश्तों को अपनी सीमा में रहकर प्रेम और अपनेपन से निभाया जाए तो रिश्तो में शहद सी मिठास घुल जाती है अन्यथा वही रिश्ते नीम से कड़ुए प्रतीत होते हैं अक्सर हम बड़े लोग भी बचकानी हरकतें कर बैठते हैं और उसका खामियाजा हमें अपने रिश्ते की बलि देकर चुकाना पड़ता है हमने भी सोंच लिया है कि इस वाक्य अतिथि देवो भव को एक सीमा तक ही स्वीकार करना चाहिए इतना नहीं कि अतिथि आपकी चाँद गंजी कर दे और आप तब भी कहते रहें - अतिथि देवो भव अतिथि देवो भव